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व्याकरण शिक्षण की विधियाँ | Grammar Teaching Method

 व्याकरण शिक्षण की विधियाँ | Grammar Teaching Method 

  1. आगमन विधि
  2. निगमन विधि
  3. सूत्र विधि
  4. परायण विधि/कण्ठस्थीकरण विधि
  5. पाठ्यपुस्तक/ तू पढ़ विधि
  6. अनौपचारिक विधि
  7. समवाय विधि
  8. आगमन-निगमन विधि
  9. भाषा संसर्ग / अव्याकृत विधि
  10. व्यतिरेकी/व्यतिरेक विधि

आज हम व्याकरण शिक्षण की विधियों के बारे में अध्ययन करेंगे। ऊपर दी गई विधियों का एक-एक करके अध्ययन करते चलेंगे।
Vyaakarn Teaching Method



1. आगमन विधि- अरस्तू -

इस विधि का निर्माण व्याकरणिक सूत्रों को याद करने के लिए अरस्तु ने किया था। 
इस विधि में सर्वप्रथम विषय वस्तु का ज्ञान कराया जाता है। उसके बाद शिक्षण सूत्र निकाला जाता है। यह विधि पांच शिक्षण सूत्रों पर आधारित है। इसमें निम्नलिखित शिक्षण सूत्र है-
(1) पूर्ण से अंश की ओर 
(2) विशिष्ट से सामान्य की ओर 
(3) ज्ञात से अज्ञात की ओर 
(4) उदाहरण से नियम की ओर  
(5) सरल से कठिन की ओर 
यह सूत्र ज्ञात करने की सरल विधि है और यह व्याकरण शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि मानी जाती है इसमें बच्चों को या विद्यार्थी को शिक्षण सूत्र याद करने की आवश्यकता नहीं होती है वह स्वयं सूत्र ज्ञात करना सीख जाते हैं।

आगमन विधि के गुण-
  • व्याकरण शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि है। 
  • बाल केंद्रित विधि है। 
  • बालकों में खोज करने की प्रवृत्ति का विकास होता है। 
  • वैज्ञानिक विधि है।
  • विद्यार्थियों की तार्किक एवं चिंतन क्षमता का विकास होता है।  
  • प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।
  • अध्यापक और विद्यार्थी दोनों क्रियाशील रहते हैं।
  •  समझ का विकास होता है। 
  • प्राथमिक स्तर पर अत्यंत उपयोगी विधि है। 
  • रटने की प्रवृत्ति कम होती है।

आगमन विधि के दोष-
  • अध्यापक इस शिक्षण विधि से अध्यापन कार्य नहीं करवाता है। 
  • अध्यापक और विद्यार्थी दोनों को बहुत अधिक क्रियाएं करनी होती है। 
  • पाठ्यक्रम समय से समाप्त नहीं हो पाता है। 
  • ज्ञान की ग्रहणशीलता की गति कम होती है ।
  • रोचक विधि नहीं है। 
  • समय बहुत अधिक लगता है। 
  • पाठ्य पुस्तक का निर्माण इस विधि के आधार पर नहीं किया जा सकता। 
  • स्मृति की क्षमता विकसित नहीं होती है। 
  • अधिक समय में कम ज्ञान प्राप्त होता है।

2.  निगमन विधि- अरस्तू एवं प्लेटो

यह विधि आगमन विधि के विपरीत शिक्षण सूत्र पर आधारित है किंतु दोनों विधियां एक दूसरे की पूरक मानी जाती है। 
इस विधि में सर्वप्रथम विद्यार्थी को सूत्र का ज्ञान कराया जाता है उसके बाद पाठ्यवस्तु का अध्ययन कराया जाता है। जब बालक सूत्र को याद कर लेता है तो सूत्र की स्थापना करना सीखाया जाता है।
इसमें भी 5 शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है जो आगमन विधि के विपरीत हैं वह इस प्रकार हैं-
(1) अंश से पूर्ण की ओर 
(2) सामान्य से विशिष्ट की ओर
(3) अज्ञात से ज्ञात की ओर
(4) नियम से उदाहरण की ओर
(5) जटिल से सरल की ओर

निगमन विधि के गुण-
  • पाठ्यक्रम समय से समाप्त हो जाता है ।
  • ज्ञान के ग्रहणशीलता की गति तीव्र होती है। 
  • स्मृति क्षमता का विकास होता है। 
  • अध्यापक इस विधि से शिक्षण करने में अधिक रूचि लेते हैं। 
  • अध्यापक एवं विद्यार्थी दोनों को बहुत अधिक क्रिया करने की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • समय कम लगता है। 
  • उच्च स्तर पर उपयोग की विधि है। 
  • पाठ्य पुस्तक का निर्माण इस विधि के आधार पर किया जाता है। 
  • रोचक विधि है ।
  • कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त होता है।

निगमन विधि के दोष-
  • अध्यापक केंद्रित विधि है। 
  • मनोवैज्ञानिक विधि है। 
  • विद्यार्थियों में रटने की प्रवृत्ति का विकास होता है।
  • तर्क एवं चिंतन क्षमता का विकास नहीं होता है।
  • खोज करने की प्रवृत्ति विकसित नहीं होती है।  
  • अवैज्ञानिक विधि है। 
  • प्राप्त ज्ञान स्थाई नहीं होता है। 
  • समझ का विकास नहीं होता है।
  • प्राथमिक स्तर पर अनुपयोगी विधि है।

3. सूत्र विधि - पाणिनी

इस विधि का प्रयोग सर्वप्रथम व्याकरण शास्त्री पाणिनी के द्वारा व्याकरण के सूत्रों को ज्ञाद करने के लिए किया था।पाणिनी ने इस विधि का निर्माण अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "अष्टाध्यायी" के व्याकरणिक सूत्रों एवं वैदिक मंत्रों को याद करने के लिए किया था। 
यह संस्कृत व्याकरण की विधि भी है। इसका प्रयोग हिंदी भाषा में व्याकरण शिक्षण के लिए किया जाता है। 
गागर में सागर भरना इस विधि का मुख्य उद्देश्य है। यह निगमन के जैसी विधि है। 
इसमें भी 5 शिक्षण सूत्र का प्रयोग किया जाता है जो निम्न प्रकार से हैं-

(1) सूक्ष्म से स्थूल की ओर
(2) सामान्य से विशिष्ट की ओर 
(3) अज्ञात से ज्ञात की ओर
(4) नियम से उदाहरण की ओर
(5) जटिल से सरल की ओर

इस विधि के समस्त गुण एवं दोष निगमन विधि के जैसे हैं जो ऊपर दिए गए हैं उनका अध्ययन करें।


4. परायण विधि /कण्ठस्थीकरण विधि-

इस विधि में 'कण्ठस्थीकरण' पर विशेष जोर दिया जाता है अत: कण्ठस्थीकरण विधि भी करते हैं।
गुरु आश्रम में वैदिक मंत्रों, सूत्रों एवं व्याकरण के नियमों का ज्ञान देते हैं। 
विद्यार्थी ध्यानपूर्वक सुनते हैं और अनुकरण करते हैं और अभ्यास करके उनका कण्ठस्थीकरण कर कर लेते हैं। 
जब गुरू ज्ञान देते हैं और विद्यार्थी सुनते हैं तो विद्यार्थियों को "श्रोत्रिय" कहा जाता है और जब विद्यार्थी सुनकर के अभ्यास के माध्यम से उनका कण्ठस्थीकरण कर लेते हैं तो उन्हें "परायणिक"  कहा जाता है यह संस्कृत भाषा के कण्ठस्थीकरण की सर्वश्रेष्ठ विधि है।



5. पाठ्यपुस्तक/ तू पढ़ विधि-

इस विधि में अध्यापक पाठ्यपुस्तक के सहयोग से व्याकरण का ज्ञान प्रदान करता है। 
अध्यापक व्याकरण के नियमों को पाठ्य पुस्तक में से पड़ता है और उन्हें स्पष्ट करता है फिर विद्यार्थियों को स्वयं पढ़ने का आदेश देता है अतः इस विधि में अध्यापक की अनुपस्थिति में भी विद्यार्थी का पठन कार्य जारी रहता है। 

किंतु इस विधि का सबसे बड़ा दोष यह है कि विद्यार्थी का ज्ञान पुस्तक तक ही सीमित रह जाता है अर्थात व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता है। यह विधि अध्यापक केंद्रीय विधि है। 


6. अनौपचारिक विधि-

जब विद्यार्थी किसी नियम का पालन ना करके व्याकरणिक ज्ञान प्राप्त करता है।
इस विधि में अध्यापक व्याकरण के नियमों को ना बता कर सीधे ही व्याकरण का ज्ञान कराता है तो इस विधि को अनौपचारिक विधि कहते हैं।


7. समवाय/ समन्वय/ सह-संबंध/ सहयोग विधि- हरबर्ट स्पेंसर 

गद्य-पद्य के सहयोग से व्याकरण शिक्षण का करना ही समय बिजी है जब अध्यापक पाठ्य पुस्तक पढ़ते समय पाठ में आए हुए व्याकरणिक शब्दों को श्यामपट्ट पर लिखकर के उनके व्याकरण संबंधी नियमों को स्पष्ट करते हुए शिक्षण करता है तो उसे समवाय विधि कहते हैं ।
इस विधि में व्याकरण के सभी नियमों को बताया जाता है। और जो व्याकरण से संबंधित विषय वस्तु होती है वह बच्चों को आसानी से समझ में आ जाती है ।
इस विधि से विद्यार्थी को व्याकरण शिक्षण का ज्ञान आसानी से प्राप्त हो जाता है।

जैसे- राम अपने माता पिता का आशीर्वाद लेकर विद्यालय जाता है। 
माता-पिता में द्वंद समास 
विद्यालय = दीर्घ संधि आदि।

समवाय विधि के गुण-
  • विद्यार्थी को व्यापक ज्ञान प्राप्त होता है। 
  • यह रोचक विधि है ।
  • प्राप्त ज्ञान व्यवहारिक होता है ।
  • विद्यार्थियों को नवीन जानकारी प्राप्त होती है। 
  • एक साथ एक से अधिक क्षेत्रों का ज्ञान प्राप्त होता है। 
  • अध्यापक विद्यार्थी को सक्रिय रखने का प्रयास करता है। 
  • पाठ्यक्रम समय से समाप्त हो जाता है ।
  • गद्य शिक्षण में आत्मिककरण के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
समवाय विधि के दोष-
  • क्रमबद्ध शिक्षण का अभाव होता है। 
  • विद्यार्थी न तो गद्य सीख पाता है, न पद्य सीख पाता है और न ही व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर पाता है।
  • यह अध्यापक केंद्रित विधि है।
  • अमनोवैज्ञानिक विधि है ।
  • प्राप्त ज्ञान स्थायी नहीं होता है। 
  • तारतम्यता का अभाव होता है ।
  • योग्य एवं अनुभवी अध्यापक की आवश्यकता होती है ।
  • पाठ्यक्रम नियम से समाप्त नहीं होता है। 
  • अध्यापक को बहुत अधिक क्रियाएं करनी होती है। 


8. आगमन-निगमन विधि-अरस्तू

यह आगमन एवं निगमन दोनों विधियों का मिश्रित रूप है।
इस विधि का व्याकरण शिक्षण में सर्वाधिक इसी विधि का प्रयोग किया जाता है। 
इस विधि में ज्ञान को विश्लेषित करके स्पष्ट किया जाता है अतः इसे विश्लेषणात्मक विधि भी कहते हैं। 
इस विधि में तीन प्रकार के शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है जो निम्नलिखित हैं। 
(1) ज्ञात से अज्ञात की ओर 
(2) प्रमाणिक से प्रत्यक्ष की ओर 
(3) निष्कर्ष से परिकल्पना की ओर
इन शिक्षण सूत्रों के आधार पर व्याकरण शिक्षण का ज्ञान विद्यार्थियों को दिया जाता है।


9. भाषा संसर्ग / अव्याकृत विधि-

इस विधि के विशेषज्ञों का मानना है कि बालक को व्याकरण का ज्ञान अलग से नहीं प्रदान करना चाहिए। 
जिस प्रकार बालक अपने मातृभाषा के व्याकरण को सुनकर अथवा पढ़कर सीख जाता है उसी प्रकार नवीन भाषा के व्याकरण को भी सुनकर या पढ़कर सीख जाएगा।

उसे किसी ऐसे कुशल वक्ता के पास भेजना चाहिए जो नवीन भाषा को व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध बोलता हो अथवा कोई ऐसी पाठ्य पुस्तक पढ़ने का आदेश देना चाहिए जो नवीन भाषा में व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध लिखी गई हो। 
इस प्रकार बालक जिसे प्रकार मातृभाषा के व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करता है वैसे ही व्यवहारिक रूप से नवीन भाषा के व्याकरण को भी से जाएगा ।
यह विधि बालक को भाषा के ज्ञान कराने की विधि है।


10. व्यतिरेकी/व्यतिरेक विधि-  

वि+अतिरेक = आवश्यकता से अधिक अत्यधिक संयुक्त 

यह एक प्रकार की तुलनात्मक विधि है। जिसमें अध्यापक नवीन भाषा के व्याकरण का ज्ञान मातृभाषा से तुलना करते हुए प्रदान करता है। 
अध्यापक व्याकरण के जिस पद का ज्ञान प्रदान करता है उससे अधिक पदों का ज्ञान विद्यार्थी को स्वयं करके सीख जाता है। 
इसमें दो भाषाओं को सम्मिलित किया जाता है। 
यह अहिंदी भाषाई राज्य में हिंदी सिखाने की सर्वश्रेष्ठ विधि है।
इस विधि में दो प्रकार की भाषाओं का प्रयोग किया जाता है, एक मुख्य भाषा और एक सहायक भाषा जो बालक को सिखाई जाती है जिसकी सहायता से बालक सीखता है।

जैसे-     This           is      a            pen
        Pronoun           Article     Noun      

             यह         एक       पेन      है।
          सर्वनाम       वचन    संज्ञा



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